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मुद्दत से जो बंद पड़ा था
मैं उस घर को खोल रहा था।
ख़ाली घर में सैकड़ों कमरे
हर कमरे में तू रहता था।
ख़ाली घर में सैकड़ों कमरे
हर कमरा कुछ बोल रहा था।
ख़ाली घर की दीवारों पर
हर सू तेरा नाम लिखा था।
ख़ाली घर की छत पर जाकर
कहूँ मैं क्या कितना रोया था।
सोच रहा हूँ आज भी मैं ये
ख़ाली घर कितना अच्छा था।
दीवारो दर ढूँढ के ला
जा मेरा घर ढूँढ के ला।
उड़ने को हूँ मुद्दत बाद
कोई तो अम्बर ढूँढ के ला।
झील की लहरों पर तैरे
ऐसा कंकर ढूँढ के ला।
जिसे नजूमी पढ़ ना सकें
अब वो मुक़द्दर ढूँढ के ला।
नाबीना आँखों के लिए
कोई तो मंज़र ढूँढ के ला।
फूल की ख़ुशबू हो जिसमें
वो इक नश्तर ढूँढ के ला।
मुझमें जीये और मरे
ऐसा सुखनवर ढूँढ के ला।
अँधेरों की नज़र से तू बचाकर
उजालों में जलाना चाहता है।
सितम आ जायें मुझको रास सारे
मुझे इतना सताना चाहता है।
तेरे आगे नहीं हूँ कुछ भी लेकिन
ये तू किसको दिखाना चाहता है।
ज़रा गिरते हुए मैं भी तो देखूं
तू किस हद तक गिराना चाहता है।
क्या मुझसे चाहता है तू भी वो ही
जो मुझसे ये ज़माना चाहता है।
मैं तेरी आग को जि़ंदा रखुंगा
मुझे तू क्यूँ बुझाना चाहता है।
हमीं पर गिरती क्यूँ हैं बिजलियां मालूम कर लेंगे
किसी दिन हम भी ये राजे-निहाँ मालूम कर लेंगे।
हमारे हमज़बाँ बनकर कभी तुम खिलखिलाते थे
हुए अब किसलिए हो बेजुबाँ, मालूम कर लेंगे।
लगी है आग दिल में यूँ कि हो सूखा कोई जंगल
मगर उठता है क्यूँ दिल में धुआँ, मालूम कर लेंगे।
हमारी रूह से रिश्ता रखा था आपने लेकिन
कहाँ दफ़ना दिये हैं जिस्मो-जाँ, मालूम कर लेंगे।
हमारी मेहरबानी से तुम्हारे ख़्वाब पलते थे
तुम्हारे कौन हैं अब मेहरबाँ, मालूम कर लेंगे।
हमारे नक़्षे-पा पे चलते-चलते रूक गए हो तुम
कहाँ जाकर मिटे कदमो-निशाँ, मालूम कर लेंगे।
हमें रहकर कहाँ पर काटनी है उम्र ये सारी
मुक़ामे इश्क़़ का वो आशियां, मालूम कर लेंगे।
कोई तो बात अमल में आए
फिर चाहे वो ग़ज़ल में आए।
फुटपाथों पर पहले जीये
बाद में चाहे महल में आए।
रूह बचेगी, जिस्म कटेगा
यही सोच मक़तल में आए।
फूलों ने तो ख़ुशबू दे दी
मज़े सब्र के फल में आए।
ख़ुद्दारी जब लगी दाँव पर
हम भी जंगो-जदल में आए।
ख़ुदा से मिलकर मिले ना जो सुख
वो माँ के आंचल में आए।
दुश्मन बनकर साथ रहे थे
दोस्त वो वक़्ते अजल में आए।
मेरी वीरानियां महक़ा रही हैं
ये ख़ुशबू जब कहाँ से आ रही है।
मेरी ख़ामोशियां भी सुन रहीं हैं
तेरी आवाज़ अब तक आ रही है।
वो जिसकी याद से तार्रूफ़ नहीं कुछ
मेरी तन्हाईयाँ तड़पा रही हैं।
तेरे आने की आहट बेतक़ल्लुफ
मेरे घर आ रही है जा रही है।
तेरे होने की बातें कर रहा हूँ
मेरे खोने की नौबत आ रही है।
मेरे सीने से लिपटी रो रही है
कि जैसे आरज़ू पछता रही है।
उसकी नज़रों में वफ़ा फिर आई
घर की खिड़की से हवा फिर आई।
उसके फिर हाथ उठे हक़़ में मेरे
उसके होठों पे दुआ फिर आई।
हिचकियाँ लेने लगी तन्हाई
उसके भीतर से सदा फिर आई।
ख़ुद को समझा किया मैं नाबीना
लौट आँखों में जि़या फिर आई।
मैं जिसे रख के कहीं भूल गया
वो ही जीने की अदा फिर आई।
उसकी चाहत ने फिर सवाल किए
मेरे होंठों पे रज़ा फिर आई।
दूर जा बसे ख़्वाबों जैसी
उसकी याद पहाड़ों जैसी
अपने दुख़, अपनी पीड़ायें
हैं कंठस्थ किताबों जैसी।
जड़ों में उलझी हुई हसरतें
बूढ़े पेड़ के पांवों जैसी।
जिस्म मज़ारों जैसा मेरा
रूह मेरी दरगाहों जैसी।
दिल से निकली हुई दुआयें
हैं मुफ़लिस की आहों जैसी।
बदन में आती-जाती साँसे
चीख़ रहे कुछ घावों जैसी।
तुझको लेकर मेरी चाहत
है बच्चों के पांवों जैसी।
घर के बाहर खड़ा हुआ है
घर का रस्ता भूल गया है।
कड़ी धूप में जिस्म गंवा कर
साया चक्कर काट रहा है।
ख़ुद में रहक़र इतना तन्हा
बड़ी मुद्दतों बाद हुआ है।
नींद का इक नन्हा सा लम्हा
किसकी याद से बिछड़ गया है।
चैराहे से गुज़र के उसने
जाने क्या-क्या सोच लिया है।
हवा के झौंके से दरवाज़़ा
बहुत दिनों के बाद खुला है।
उसने बिल्कुल सही सुना था
मैंने शायद यही कहा था।
होशियारी से काट के उसने
नाम के ऊपर नाम लिखा था।
उम्र काट कर उसने मेरी
बदन को तन्हा छोड़ दिया था।
जोड़ रहा था वो घर अपना
मैं अपना घर तोड़ रहा था।
मुझमें लम्बी दूरी वाला
रस्ता कोई ठहर गया था।
बंद पड़े घर की खिड़की से
मैं दरवाज़़े देख रहा था।
पाकर मुझको लौट गया वो
और मैं ख़ुद को ढूँढ रहा था।
बूढ़ा पेड़ हवा को छू कर
सूख पत्ते तोड़ रहा था।
आँखों में दरिया रोया है
किसने मुझको याद किया है।
आंगन ख़ुष, दीवारें हैं ख़ुष
घर की छत को चांद दिखा है।
मेरा कोई पुराना चेहरा
मेरे आगे आ बैठा है।
तू लौटा तो मैंने दर का
जलता दीया बुझा दिया है।
तन्हाई ख़ामोश है लेकिन
ख़ामोशी में शोर मचा है।
यादों का इक पागल लड़का
मुझमें आकर नाच रहा है।
दीवारों पर चमक रहे हैं
धूप ने किसका नाम लिखा है।
दिल में मेरे जो रहता है
वो आँखों से बोल रहा है।
बहते दरिया की आवाज़ें
मुझमें कोई छोड़ गया है।
मुद्दत से बस एक कहानी
मैं कहता हूँ वो सुनता है।
एक नजूमी मुझमें है जो
फूटी कि़स्मत को पढ़ता है।
आसमान का सपना मुझमें
जाने कितनी बार उड़ा है।
भूल गया है अब वो मुझको
ख़त में उसने यही लिखा है।
मैं उसका कि़रदार नहीं था
जो यारों का यार नहीं था।
मरने को वो साथ था सबके
जीने को तय्यार नहीं था।
सहाराओं को ख़ून पिलाया
पानी का हक़़दार नहीं था।
मैं था एक ख़ज़ाना जिसका
कोई दावेदार नहीं था।
सुनके सदायें जो ना रूकतीं
मैं ऐसी रफ़्तार नहीं था।
ज़ख़्म ही सींता रहा हमेशा
सूई था तलवार नहीं था।
ना पूछ मुझसे किधर गया वो
कई ख़ुशबुओं में बिखर गया वो।
हर एक लम्हा जिया जो मुझमें
ये कौन कहता है मर गया वो।
ताउम्र तन्हाईयाँ मिलेंगी
ये जानकर भी उधर गया वो।
ठुकरा दिया उसको दीवारो-दर ने
ना फिर वो लौटा ना घर गया वो।
सफ़र में उसको भी नाख़ुदा ने
जहां उतारा उतर गया वो।
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